कविता : मैं कोई शब्दों का भंडार नहीं, हूं मैं कवियों सा कोई अवतार नहीं,
मैं कोई शब्दों का भंडार नहीं,
हूं मैं कवियों सा कोई अवतार नहीं,
बस एक नादान बालक हूं,
एक अजनबी सा चालक हूं,
संसार के इस वेग में,
मैं बह रहा हूं रेत सा,
शब्दों को यूं सजाकर,
मैं भर रहा हूं खेत सा,
रोज गलतियां करता हूं,
गिरता हूं, संभलता हूं,
पर कुछ न कुछ रोज ही उससे सीखता हूं,
कुछ ख़ास नहीं, मैं इश्क़ ही तो लिखता हूं।
तुम्हें कुछ ख़ास बताना नहीं है मुझे,
अपनी इन बातों से,
किसी को कुछ सिखाना नहीं है मुझे,
बस अपनी ही बातें लिख रहा हूं,
औरों से नहीं तो,
खुद से ही रोज सीख रहा हूं,
न हूं राम का सा तेज मैं,
न हूं गंगा का सा वेग मैं,
मैं तो,
खाली पड़ा सा मेज हूं,
बिना काम का दस्तावेज़ हूं,
खुली पड़ी किताब हूं,
खुद की हूं बातों से आबाद हूं,
अब वक्त से भी लड़ना है मुझे,
मैदान अब ये छोड़ना नहीं है मुझे,
शायद मैं बातें बेतुकी करता हूं,
पर इन्हीं बेतुकी बातों को रोज ही मैं सींचता हूं,
कुछ ख़ास नहीं, मैं इश्क़ ही तो लिखता हूं।
अब ज़रूरत नहीं है किसी की,
खुद को पूरा करने के लिए,
क्योंकि अब हम खुद में ही पूरे हैं,
गर लगता है आपको कि
हम अब भी आधे अधूरे हैं,
तो बता दूं,
नहीं चाहिए कोई अब दिल ये दुखाने के लिए,
बेहतर है ये खालीपन उस नाटक के बजाय,
नहीं चाहिए कोई अब बतरश बतियाने के लिए,
इक लड़की थी जिसपे मैं मरता था,
फिसलता था, ठहरता था,
शायद इन पंक्तियों से चित्र उसका ही खींचता हूं,
कुछ ख़ास नहीं, मैं इश्क़ ही तो लिखता हूं। कोई शब्दों का भंडार नहीं,
हूं मैं कवियों सा कोई अवतार नहीं,
बस एक नादान बालक हूं,
एक अजनबी सा चालक हूं,
संसार के इस वेग में,
मैं बह रहा हूं रेत सा,
शब्दों को यूं सजाकर,
मैं भर रहा हूं खेत सा,
रोज गलतियां करता हूं,
गिरता हूं, संभलता हूं,
पर कुछ न कुछ रोज ही उससे सीखता हूं,
कुछ ख़ास नहीं, मैं इश्क़ ही तो लिखता हूं।
तुम्हें कुछ ख़ास बताना नहीं है मुझे,
अपनी इन बातों से,
किसी को कुछ सिखाना नहीं है मुझे,
बस अपनी ही बातें लिख रहा हूं,
औरों से नहीं तो,
खुद से ही रोज सीख रहा हूं,
न हूं राम का सा तेज मैं,
न हूं गंगा का सा वेग मैं,
मैं तो,
खाली पड़ा सा मेज हूं,
बिना काम का दस्तावेज़ हूं,
खुली पड़ी किताब हूं,
खुद की हूं बातों से आबाद हूं,
अब वक्त से भी लड़ना है मुझे,
मैदान अब ये छोड़ना नहीं है मुझे,
शायद मैं बातें बेतुकी करता हूं,
पर इन्हीं बेतुकी बातों को रोज ही मैं सींचता हूं,
कुछ ख़ास नहीं, मैं इश्क़ ही तो लिखता हूं।
अब ज़रूरत नहीं है किसी की,
खुद को पूरा करने के लिए,
क्योंकि अब हम खुद में ही पूरे हैं,
गर लगता है आपको कि
हम अब भी आधे अधूरे हैं,
तो बता दूं,
नहीं चाहिए कोई अब दिल ये दुखाने के लिए,
बेहतर है ये खालीपन उस नाटक के बजाय,
नहीं चाहिए कोई अब बतरश बतियाने के लिए,
इक लड़की थी जिसपे मैं मरता था,
फिसलता था, ठहरता था,
शायद इन पंक्तियों से चित्र उसका ही खींचता हूं,
कुछ ख़ास नहीं, मैं इश्क़ ही तो लिखता हूं।
Storyteller_vs की कुछ और रचनाएं -
* मैं पानी हूं, कल- कल करता, छल- छल करता, मैं नदियों की वाणी हूं - storyteller_vs
हूं मैं कवियों सा कोई अवतार नहीं,
बस एक नादान बालक हूं,
एक अजनबी सा चालक हूं,
संसार के इस वेग में,
मैं बह रहा हूं रेत सा,
शब्दों को यूं सजाकर,
मैं भर रहा हूं खेत सा,
रोज गलतियां करता हूं,
गिरता हूं, संभलता हूं,
पर कुछ न कुछ रोज ही उससे सीखता हूं,
कुछ ख़ास नहीं, मैं इश्क़ ही तो लिखता हूं।
तुम्हें कुछ ख़ास बताना नहीं है मुझे,
अपनी इन बातों से,
किसी को कुछ सिखाना नहीं है मुझे,
बस अपनी ही बातें लिख रहा हूं,
औरों से नहीं तो,
खुद से ही रोज सीख रहा हूं,
न हूं राम का सा तेज मैं,
न हूं गंगा का सा वेग मैं,
मैं तो,
खाली पड़ा सा मेज हूं,
बिना काम का दस्तावेज़ हूं,
खुली पड़ी किताब हूं,
खुद की हूं बातों से आबाद हूं,
अब वक्त से भी लड़ना है मुझे,
मैदान अब ये छोड़ना नहीं है मुझे,
शायद मैं बातें बेतुकी करता हूं,
पर इन्हीं बेतुकी बातों को रोज ही मैं सींचता हूं,
कुछ ख़ास नहीं, मैं इश्क़ ही तो लिखता हूं।
अब ज़रूरत नहीं है किसी की,
खुद को पूरा करने के लिए,
क्योंकि अब हम खुद में ही पूरे हैं,
गर लगता है आपको कि
हम अब भी आधे अधूरे हैं,
तो बता दूं,
नहीं चाहिए कोई अब दिल ये दुखाने के लिए,
बेहतर है ये खालीपन उस नाटक के बजाय,
नहीं चाहिए कोई अब बतरश बतियाने के लिए,
इक लड़की थी जिसपे मैं मरता था,
फिसलता था, ठहरता था,
शायद इन पंक्तियों से चित्र उसका ही खींचता हूं,
कुछ ख़ास नहीं, मैं इश्क़ ही तो लिखता हूं। कोई शब्दों का भंडार नहीं,
हूं मैं कवियों सा कोई अवतार नहीं,
बस एक नादान बालक हूं,
एक अजनबी सा चालक हूं,
संसार के इस वेग में,
मैं बह रहा हूं रेत सा,
शब्दों को यूं सजाकर,
मैं भर रहा हूं खेत सा,
रोज गलतियां करता हूं,
गिरता हूं, संभलता हूं,
पर कुछ न कुछ रोज ही उससे सीखता हूं,
कुछ ख़ास नहीं, मैं इश्क़ ही तो लिखता हूं।
तुम्हें कुछ ख़ास बताना नहीं है मुझे,
अपनी इन बातों से,
किसी को कुछ सिखाना नहीं है मुझे,
बस अपनी ही बातें लिख रहा हूं,
औरों से नहीं तो,
खुद से ही रोज सीख रहा हूं,
न हूं राम का सा तेज मैं,
न हूं गंगा का सा वेग मैं,
मैं तो,
खाली पड़ा सा मेज हूं,
बिना काम का दस्तावेज़ हूं,
खुली पड़ी किताब हूं,
खुद की हूं बातों से आबाद हूं,
अब वक्त से भी लड़ना है मुझे,
मैदान अब ये छोड़ना नहीं है मुझे,
शायद मैं बातें बेतुकी करता हूं,
पर इन्हीं बेतुकी बातों को रोज ही मैं सींचता हूं,
कुछ ख़ास नहीं, मैं इश्क़ ही तो लिखता हूं।
अब ज़रूरत नहीं है किसी की,
खुद को पूरा करने के लिए,
क्योंकि अब हम खुद में ही पूरे हैं,
गर लगता है आपको कि
हम अब भी आधे अधूरे हैं,
तो बता दूं,
नहीं चाहिए कोई अब दिल ये दुखाने के लिए,
बेहतर है ये खालीपन उस नाटक के बजाय,
नहीं चाहिए कोई अब बतरश बतियाने के लिए,
इक लड़की थी जिसपे मैं मरता था,
फिसलता था, ठहरता था,
शायद इन पंक्तियों से चित्र उसका ही खींचता हूं,
कुछ ख़ास नहीं, मैं इश्क़ ही तो लिखता हूं।
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