कविता : मैं पानी हूं, कल- कल करता, छल- छल करता, मैं नदियों की वाणी हूं
मैं पानी हूं,
कल- कल करता,
छल- छल करता,
मैं नदियों की वाणी हूं,
हर घर की मैं कहानी हूं,
मैं पानी हूं।
पर्वतों को चीरकर,
लकीर खुद की खींचकर,
रुख हवाओं का भी मोड़कर,
नदी के इस वेग को,
ज़िंदा रखे है जो,
मैं ही वो रवानी हूं,
मैं पानी हूं।
जंगलों के बीच से,
वादियों के नीच से,
अनवरत जो बह रहा है,
बातें अपनी जो कह रहा है,
मैं ही वो जुबानी हूं,
मैं पानी हूं।
सबको आदत है मेरी,
ज़िन्दगी को ज़रूरत है मेरी,
हर जीव का मैं रक्त हूं,
सदियों पुराना वक्त हूं,
मैं खाने का प्यार हूं,
हर मां का मैं दुलार हूं,
खुद में ही एक संसार हूं,
मैं पेयों का सरदार हूं,
इन वृक्षों की दमदार जवानी हूं,
मैं पानी हूं।
मैं उस प्रेमिका का प्यार हूं,
उस आशिक़ का खुमार हूं,
बेआवाज होकर भी सुरीली एक आवाज़ हूं,
मैं गीत हूं, मैं इश्क़ हूं,
मैं एक अमर प्रेम कहानी हूं,
मैं पानी हूं।
हूं जंगल का सौंदर्य मैं,
हूं प्रकृति का आश्चर्य मैं,
मैं गंगा सा पावन हूं,
हर मौसम शिव का सावन हूं,
हिरन की वो प्यास हूं,
जीने की मैं ही आस हूं,
सबके लिए कुछ खास हूं,
पर खुद के लिए ही मैं अनायास हूं,
जो भी हूं,
जैसा भी हूं,
मैं शिव सा ही अभिमानी हूं,
तुलसीदास सा ज्ञानी हूं,
मैं पानी हूं।
मैं जीवन का आधार हूं,
कहानियां लिये बेशुमार हूं,
मंदाकिनी हूं राम की,
यमुना हूं मैं श्याम की,
इन मनचली धाराओं की शरारत हूं,
हर प्यासे की चाहत हूं,
नदियों की बेशुमार शौहरत हूं,
खुद में समेटे सम्पूर्ण भारत हूं,
इस धरा का कड़- कड़ मेरा साक्षी है,
घड़ी का क्षड़- क्षड़ मेरा साक्षी है,
मैं तुम्हारा अतीत हूं,
वर्तमान में तुम्हारा अस्तित्व हूं,
रामायण सा स्नेह का सागर भी हूं,
महाभारत सा रौद्र का गागर भी हूं,
मैं वक्त की रफ़्तार हूं,
अतिथियों का सत्कार हूं,
मैं ही पावन सदाचार हूं,
भारतवर्ष का अद्वितीय संस्कार हूं,
समस्त विश्व के लिए एक हैरानी हूं,
खुशियों की मैं राजधानी हूं,
आने वाला वक्त आगामी हूं,
कितनी बार बता चुका,
मैं ही तो पानी हूं।
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