कविता : इस दुख रूपी सागर से, मोती सी कुछ बूंदे मैं चुन रहा हूं
इस दुख रूपी सागर से,
मोती सी कुछ बूंदे मैं चुन रहा हूं,
हालात तो कुछ ठीक नहीं हैं,
इसलिए कुछ आनंदमई संगीत मैं सुन रहा हूं।
तो जैसा की बताया गया है,
कि बात मुझे उन पलों की करनी है,
जिनमें मैं खुश हूं, आबाद हूं, जीवन में मेरे कुछ रोशनी है,
सूरज भी है, चांद भी है,
दिन अजोर है, रात भी तब चांदनी है।
" जब मां की गोद में ही,
दिन भी था, रात भी थी,
अभी पांव जमीं पे पड़े भी नहीं थे,
वो मां ही थी जो हर पल मेरे साथ थी।
छोटी छोटी उन बातों पर भी,
उसकी वो प्यारी फटकार,
कभी न ख़तम होने वाला उसका दुलार,
उसके आंचल में दिखता वो पूरा संसार,
उन पलों के लिए शब्द प्रयाप्त नहीं हैं मेरे पास,
जो उनको लिख दे,
मेरे अल्फ़ाज़ नहीं हैं इतने भी ख़ास।
मां के आंचल में बिताए वो पल,
वो पल ही हैं मेरी कविता का सार,
मेरे लिए वो ही हैं मेरे खुशियों का त्यौहार।
याद है जब पहली बार इश्क़ हुआ था,
नज़रों से ही कत्लेआम हुआ था,
वो भी सरेआम हुआ था,
उस चांद से चेहरे पर क़ातिल को मुस्कान,
उस मुस्कान ने ही मचाया था सारा कोहराम,
उस चेहरे पर हम मर गए थे,
नाम अपना सारा उसके नाम कर गए थे,
कुछ नशा था उनकी आंखों में,
जो बेवजह ही इस कमबख्त इश्क़ के चक्कर में पड़ गए थे,
जान जान कर रहे थे,
और जान अपनी ही हम न्यौछावर कर रहे थे।
उस ' जान ' की बातें नादान,
उन आंखों का नशीला वो जाम,
कुछ था जो पहली बार था,
इश्क़ था, दर्द था,
जो था बस बेशुमार था।
उस इश्क़ में,
स्कूल रोज़ जाने का शिष्टाचार,
रोज़ इश्क़ का मिलने वाला वो किमती पुरस्कार,
कटता ही नहीं था वो छुट्टी वाला रविवार,
उसका वो मनमोहक श्रृंगार,
उन नज़रों की तलवार,
शायद इन सभी से ही हो गया था मुझको प्यार,
उस दौर में मेहरबान था शायद परवर्दिगार,
इसीलिए उतना अखरता नहीं था कोई भी रविवार,
इश्क़ में खुशहाल थे हम,
खुशहाल होकर भी बेहाल थे हम,
इश्क़ में बिताया हर वो पल,
वो पल ही हैं मेरी कविता का सार,
मेरे लिए वो ही हैं मेरे खुशियों का त्यौहार।
जब दिल टूटा,
तनहाई ने चहुं ओर से लपेटा,
तो बिना किसी इंतज़ार,
उन दोस्तों का वो प्यार,
उनका वो सराहनीय व्यवहार,
एक तरफ वो,
दुजी ओर पूरा संसार,
उस बेवफ़ा के विरुद्ध,
उनका को रौद्र अवतार,
वो अद्वितीय परोपकार,
दुख के उन पलों में उनका वो साथ,
वो पल ही हैं मेरी कविता का सार,
मेरे लिए वो ही हैं मेरे खुशियों का त्यौहार।
तो बात अब मातृभूमि की करता हूं,
जो दिया इसने, वो और किसी के बस का कहां था,
शायद मां से भी ज्यादा,
मेरे पे मातृभूमि का ही हक था,
बचपन में उस माटी का स्वाद,
उस स्वाद की थी कुछ निराली बात।
जब कोई नहीं था साथ,
तब इस माटी ने ही गोद में अपनी मुझे सुलाया है,
बनाया है, बिगड़ा है,
आजमाया है,
पर फिर भी काफी कुछ इसने ही मुझे सिखाया है।
उस माटी का वो प्यार,
मेरे पे उसका अधिकार,
उसमें बसे सबके ओंकार,
भारतवर्ष का अद्भुत संस्कार,
कृष्ण के मुख से निकले जो गीता सार,
नहीं कोई इस जहां में इस माटी सा पहरेदार,
उस माटी का अहसान,
गोद में उसकी बिताया हर वो पल,
वो पल ही हैं मेरी कविता का सार,
मेरे लिए वो ही हैं मेरे खुशियों का त्यौहार।"
Storyteller_vs
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