निजीकरण : एक वरदान या फिर अभिशाप
देश मे बेरोजगारी अपने चरम पे है। और इस बेरोजगारी से भी ज्यादा चरम पे कुछ है तो वो है राजनीति।
आज चारो तरफ निजीकरण, संविदा जैसे
मुद्दों पे चर्चा हो रही है। हर कोई इसका विरोध कर रहा है और ये विरोध जायज भी है। क्योंकि निजीकरण और संविदा वाला विचार युवाओं के भविष्य को धरातल में ले डूबेगा।
लेक़िन आज इस मुद्दे पे भी विचार करना होगा कि आखिर निजीकरण क्यों?
सच तो ये है कि सरकार के कुछ ऐसे विभाग हैं जिन्होंने अपने आलस्य से निजीकरण को बल दे दिया है। वे विभाग काम नही करते, जिस कारण सरकार को लगता है कि निजीकरण से कार्यो में तेजी आएगी।
उदाहरण के तौर पे हमारा शिक्षा विभाग... कहने को तो पचास हजार रुपये तनख्वाह है इनके लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी जी द्वारा प्रारंभ कियेे गये सर्व शिक्षा अभियान के अध्यापकों ने जो उदाहरण पेश किया है वो...
वही संचार के क्षेत्र में भारत संचार निगम लिमिटेड के कर्ममचारियों की अपने कार्य के प्रति उदासीनता,
बिजली विभाग की ओर देखे तो गांवों में
न ही बिजली के खम्भे हैं और न ही घरों तक बिजली पहुँच पाई है। फिर भी बिजली की रीडिंग जारी है। कर्मचारियों की लापरवाही से लोगों पर बिजली का बोझ बढ़ता जा रहा है।
ऐसे बहुत से उदाहरण हमारे अपनो ने सेट किये है जो निजीकरण को बल दे रहे हैं। आज हमारे कर्मचारी सही से अपना कार्य करते तो यह दिन न देखने पड़ेतेे।
फिर भी यह निजीकरण सरकार को वापस लेंना होगा।
क्योंकि इससे किसी का भला नही होने वाला।
“आख़िर युवा प्रयागराज में किराए पर घर लेकर, घण्टों पढ़कर, गाँव से दूर संविदा के लिए तो नही गया है न? सरकार इस बात को समझे और अपना निर्णय वापस ले।”
या फिर युवाओ की एक माँग पूरी कर दे कि सांसद/विधायक भी निजीकरण/संविदा वाले होंगे, उनके भी कार्यकाल की समीक्षा होगी। आखिर वो भी तो कोई कार्य नही करते! उनके भी वेतन, भत्ते में कटौती होगी।
जाने दो पंडित हो जाने दो निजीकरण। अभी सरकारी तंत्र कौन सा लोगो का कल्याण कर रहा है । जहा भी जाओ घुस , अवैध वसूली, पैसा ना मिलने पर जनता को परेशान करना ।क्या फायदा है इन सरकारी विभागों का । निजीकरण होने के बाद कमसेकम जिन सेवाओं के लिए पैसा देंगे तो काम तो हो जाए गा ना बिना भ्रष्टाचार किए।
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